एक युवती ने मुझसे एक बार पूछा—हे गुरुदेव, पिछले दो माह से मैं एक युवक के गहन प्रेम में हूं। प्रेम में मीठा-मीठा क्यों होता है?
मैंने जवाब दिया—हे
देवी, अगर कड़वा होता तो तुम कब की भाग गई होतीं सब छोड़-छाड़ कर! मछली को
फंसाने के लिए आटा लगाते हैं कि नहीं? मछली पूछे कि कांटे में मीठा-मीठा,
इतना स्वादिष्ट, लुभावना आटा क्यों लगा रहता है? ताकि तुम कांटे में उलझ
जाओ। अतः थोड़ी सी मिठास जरूरी है। विवाह होने दो, फिर दो-चार माह बीतने दो!
थोड़ा धैर्य रखो, जल्दी ही सारा रहस्य खुल जाएगा। मेरे समझाने से नहीं समझ
आएगा।
प्यार की मन में जोत जलाए एक जमाना बीत गया
आंसू की परवान चढ़ाए एक जमाना बीत गया।
अब क्या हमको दौरे जमाना होश दिलाएगा साकी
शायद हमको होश में आए एक जमाना बीत गया।
अहदे बहारां जोशे जवानी कुंजे गुलिस्तां तन्हाई
चांदनी रातें और दो साए एक जमाना बीत गया।
आओ अदम फिर सुंदर सुंदर मूरतियों से प्यार करें
उजले उजले धोके खाए एक जमाना बीत गया।
दिल को ढ़ाढस देने वाले अब इतनी तकलीफ न कर
इस घर में कंदील जलाए एक जमाना बीत गया।
एक
जमाना बीत जाएगा तब अक्ल आएगी, जल्दबाजी नहीं की जा सकती। थोड़ा धैर्य रखो,
जल्दी ही सारा रहस्य खुल जाएगा। मेरे समझाने से नहीं समझ आएगा। अभी तो बस
इतना जान लो कि इस दर्दनाक प्रेम से परमानंद वाले प्रेम तक की यात्रा करनी है।
प्रेम के अनेक रूप हैं। जितने
निचले सोपान वाला प्रेम होगा उतना ही-ईर्ष्या-जलन उसके संग चिपके होंगे।
जितने उच्च सोपान वाला प्रेम होगा, उतनी शांति-सुख-संतुष्टि की अनुभूति
होगी। प्रेम का नाता भी एक इंद्रधनुष है। भिन्न-भिन्न दिखाई देने
वाले रंग भी एक ही श्वेत रंग से निकले हैं। जैसे सूरज की सफेद किरण,
इंद्रधनुष में सात रंग की दिखाई देने लगती है। ठीक वैसे ही हमारी जीवन
ऊर्जा सात रंगों में अभिव्यक्त होती है।
सबसे पहला समझो मोह; वस्तुओं
के प्रति, मकान के प्रति, सामानों के प्रति, स्थानों के प्रति जो हमारी
पकड़ है वह भी प्रेम का ही एक स्थूल रूप है। उसे हम कहते हैं मोह, अटैचमैंट।
यह मेरा सामान है, यह मेरा मकान, मेरी कार, मेरा फर्नीचर, मेरे गहने; यह
जो मेरे की पकड़ है वस्तुओं के ऊपर, यह सर्वाधिक निम्न कोटि का प्रेम है।
लेकिन है तो वह भी प्रेम। उसे इंकार नहीं किया जा सकता है कि वह प्रेम नहीं
है। वह भी प्रेम है। राजनीति पद व शक्ति के प्रति प्रेम है, लोभ
धन-संपत्ति के प्रति प्रेम है।
उससे ऊपर है, दूसरे तल पर देह का प्रेम, जो कामवासना का रूप ले लेता है।
तो पहला रूप हुआ वस्तुओं के प्रति प्रेम जो मोह का रूप ले लेता है और
दूसरा प्रेम हुआ देह के प्रति प्रेम जो वासना का रूप ले लेता है।
तीसरा प्रेम है विचारों का, मन का प्रेम।
जिसे हम कहते हैं मैत्री भाव। यहाँ देह का सवाल नहीं है। वस्तु का भी सवाल
नहीं है। मन आपस में मिल गए तो मित्रता हो जाती है। मन के तल का प्रेम,
विचार के तल का प्रेम दोस्ती है।
चौथा है हृदय के तल पर, जिसे हम कहते हैं--प्रीति।
सामान्यतः हम इसे ही भावनात्मक प्रेम कहते हैं। उसे यहाँ बीच में रख सकते
हैं, चौथे सोपान पर; क्योंकि तीन रंग उसके नीचे हैं, तीन रंग उसके ऊपर हैं।
तो चौथा है हृदय के तल पर प्रीति का भाव; अपने बराबर वालों के साथ हृदय का
जो संबंध है--भाई-भाई के बीच, पति-पत्नी के बीच, पडोसियों के बीच। इसके दो
प्रकार और हैं--अपने से छोटे वालों के प्रति वात्सल्य भाव है, स्नेह है।
अपने से बड़े जो हैं उनके प्रति आदर का भाव है; वे भी प्रीति के ही रूप हैं।
पांचवां, आत्मा के तल का केंद्र है इसमें
भी दो प्रकार हो सकते हैं। जब हमारी चेतना का प्रेम स्वकेंद्रित होता है
तो उसका नाम ध्यान है। और जब हमारी चेतना परकेंद्रित होती है उसका नाम
श्रद्धा है। गुरु के प्रति प्रेम श्रद्धा बन जाता है।
चेतना के बाद छठवें तल का प्रेम घटता है जब हम ब्रह्म से, परमात्मा से परिचित होते हैं।
वहाँ समाधि घटित होती है। वह भी प्रेम का एक रूप है। अतिशुद्ध रूप। अब
वहाँ वस्तुएं न रहीं, देह न रही। विचारों के पार, भावनाओं के भी पार पहुंच
गए। तो समाधि को कहें पराभक्ति, परमात्मा के प्रति अनुरक्ति।
उसके बाद अंतिम एवं सातवां प्रकार है--अद्वैत की अनुभूति। प्रेम
गली अति सांकरी ता में दो न समाई। जब अद्वैत घटता है तो न मैं रहा, न तू
रहा; न भगवान रहा, न भक्त बचा। कोई भी न बचा। वह प्रेम की पराकाष्ठा है। ये
सात रंग हैं प्रेम के इंद्रधनुष के, ऐसा समझें।
सबसे
पहला है मोह, वस्तुओं के प्रति। दूसरा सैक्स, देह के प्रति। तीसरा मैत्री,
विचारों के प्रति। चौथा प्रीति, भावना के प्रति। पांचवां चैतन्य के प्रति
प्रेम, जिसके दो रूप हो सकते हैं। जो लोग स्वकेंद्रित हैं वे ध्यान करेंगे,
जो लोग परकेंद्रित हैं वे श्रद्धा में डूबेंगे। छठवां तल है परमात्मा के
प्रति प्रेम, सर्वात्मा के प्रति प्रेम उसका नाम है-पराभक्ति। और सातवां है
अद्वैत की अनुभूति; यह नाता नहीं, प्रेम की पराकाष्ठा है जहाँ दो नहीं
बचते। यह प्रेम की अंतिम मंजिल है जहाँ द्वैत खो गया, दुई समाप्त हो गयी।
इस मंजिल के पहले कहीं भी रुकना मत।
शेष सब सीढ़ियां हैं। जब
तक तुम मंजिल पर ही न पहुंच जाओ प्रेम की, तब तक कहीं भी मत रूकना। चलते
चलना, चलते चलना, चरैवेति-चरैवेति। काम से राम तक की लंबी है यात्रा। अहम
से ब्रह्म तक का है सफर। इसमें मध्य का पड़ाव है प्रेम। अगर तुम तीन खंडों
में तोड़ना चाहो तो कह सकते हो अहम्, प्रेम, ब्रह्म। या कह लो काम, प्रेम,
राम। प्रेम बीच में है। इसलिए मैंने प्रेम को चौथी सीढ़ी पर रखा उसके
तीन-तीन पायदान दोनों तरफ हैं। अगर वह नीचे की तरफ गिरे तो मोह बन जाता है,
कामवासना बन जाता है, दोस्ती बन जाता है। यदि वह ऊपर उठे तो ध्यान अथवा
श्रद्धा बन जाता है, पराभक्ति बन जाता है और अंततः अद्वैत में ले जाता है।
जितने नीचे के तल पर आओगे उतनी ही घृणा व दर्द की मात्रा बढ़ती जाएगी,
प्रेम की मात्रा कम होती जाएगी। जितने ऊपर जाओगे, घृणा व दर्द की मात्रा
कम होती जाएगी, प्रेम व आनंद की मात्रा बढ़ती जाएगी। प्रेम का शुद्धिकरण
होता जाएगा। एक ही ऊर्जा का खेल है प्रेम और घृणा। सबसे निम्नतम तल पर
प्रेम करीब-करीब नहीं के बराबर, घृणा ही घृणा है। जितने ऊपर जाओगे, वहाँ पर
घृणा शून्य हो जाएगी, प्रेम परिपूर्ण हो जाएगा। और बीच में जिसे हम
सामान्य भाषा में प्रेम कहते हैं वह चौथी सीढ़ी पर है, उसमें तो मिश्रण है
फिफ्टी-फफ्टी। वहाँ जहर और अमृत आपस में घुले-मिले हुए हैं। दोनों एक साथ
हैं और इस पर निर्भर करता है कि तुम स्वयं को क्या समझते हो?
क्या तुम स्वयं को देह समझते हो? तो तुम्हारा प्रेम कामवासना ही होगा दूसरे
से तुम उसी तल पर संबंधित हो पाओगे जिस तल पर तुम स्वयं को जानते हो। यदि
तुम स्वयं को मन समझते हो तो तुम्हारा संबंध दोस्ती बनेगा। यदि तुम स्वयं
को हृदय मानते हो, भावनाओं के तल पर जीते हो तब तुम्हारा प्रेम मध्य में
होगा। यदि तुम स्वयं को चैतन्य समझते हो कि मैं चैतन्य हूं, मैं साक्षी
आत्मा हूं तब तुम्हारा दूसरे से जो प्रेम होगा वह चेतना के तल पर होगा।
दूसरे में तुम वही देखते हो जो स्वयं के भीतर देख पाते हो। ऐसा नहीं हो
सकता कि तुम स्वयं देह केंद्रित हो और दूसरे के भीतर की चेतना को जान पाओ।
यह संभव नहीं। यदि तुम स्वयं के भीतर अपनी चेतना को महसूस करते हो तो दूसरे
के भीतर भी तुम चेतना को महसूस कर पाओगे। तब तुम्हारा प्रेम उच्चतर होता
चला जाएगा। जब तुम अपने भीतर भगवत्ता को जान लेते हो तब तुम सारे जगत के
कण-कण में उसी भगवान को पहचानते हो। तब तुम्हारा प्रेम भक्ति बन जाता है।
और एक दिन वह अद्भुत घटना भी घटती है जिसका नाम बुद्धत्व है। जहाँ भक्त और
भगवान का द्वैत भी मिट जाता है। फिर वहाँ कोई नाता नहीं है। नाता तो दो के
बीच घटता है।
एक शब्द तुमने सुना है
ब्रह्मचर्य। मैं दो नये शब्द निर्मित करना चाहता हूं। ब्रह्म को जानकर जो
चर्या है, वह ब्रह्मचर्य कहलाती है, तो अहम के तल पर जो जी रहा है उसके
आचरण को कहना चाहिए अहम्चर्य। और मध्य में जो है उसका नाम होना चाहिए
प्रेमचर्य। तीन तरह के संबंध इस अस्तित्व से तुम्हारे हो सकते हैं अहम्चर्य, प्रेमचर्य, और ब्रह्मचर्य।
और
ये तीनों आपस में विपरीत नहीं हैं। ये आपस में सोपान की तरह एक दूसरे से
जुड़े हुए हैं। निचले पायदान से ऊपरी पायदान तक हमें जाना है। दर्द वाले प्रेम से परमानंद वाले प्रेम तक की यात्रा करनी है।
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