जिस्म बेचना शौक है, जरुरत या मजबूरी? क्या मजबूरी में इंसान इस हद तक गिर सकता है?

मेरी मां वैश्य (Prostitute) है, पिता जी के गुजर जाने के बाद हम दो बहनो को पालने के लिए उसे मजबूरन घिनौना राह चुनना पड़ा।
मैं चाहता तो इस कहानी को गुमनाम पोस्ट कर सकता था। फिर मकसद पूरा नहीं होता। हमें लगता ऐसे लोगो के साथ देना, सहानुभूति दिखाना, हमारी छवि को दागदार कर देगा। इसी सोच को बदलने के लिए इस विषय पर लिख रहा हूँ | और अपनी पहचान नहीं छुपा रहा।
देर रात नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से हुडा सिटी सेण्टर आते वक्त मेट्रो में एक महिला से हुई बात चीत को आधार बना लिख रहा हूँ। ये कहानी देश की उन तमाम महिलाओं की है जो किसी मजबूरी में खुद को बदनामी की ओर ले जाती हैं।
पिताजी के गुजर जाने के बाद माँ ने अकेले ही हम दोनों बहनों को पढ़ाया लिखाया और जितना हो सका शौक भी पूरे किए। माँ ने अपनी सारी जवानी हमारी परवरिश में गुजार दी। माँ 18 घंटे काम करती थी। सुबह अस्पताल में सफाई, दोपहर भर कपड़े सिलती थी और शाम के वक्त शहर के सबसे आलीशान होटल के कमरों की सफाई करती। ऐसे ही चलता था गुजारा, बड़ी बहन की जब बारवीं पूरी हुई तो वह भी किसी कंप्यूटर सेंटर पर बच्चों को कंप्यूटर सिखाने लगी। जैसा था ठीक था सजने सवरने के सामान के अलावा और किसी चीज की कमी नहीं थी। महंगे कपड़े ना सही अंग ढकने को पूरे थे ।
मां को सुबह छह बजे जाना होना है तो रात में जल्दी खाना पीना हो जाता था।
एक रात किसी बात से मुझे नींद नहीं आ रही थी। बहन बगल में सोइ थी मैं करवटें बदलती रही।रात के 1:30 बजे अचानक धीमी आवाज़ में बड़ा दरवाजा खुलने की आवाज़ आई। मैं डर गई जाने कौन चोर घुस आया। फिर धीरे से माँ के कमरे का दरवाजा खुलने की आवाज़ आई। मैं चौकन्ना हो गयी। मैं हिम्मत कर का धीरे धीरे बहार निकली, माँ के कमरे से फुसफुसाने की आवाज़ आ रही थी।मैं कुछ देर वही खड़े रहने के बाद, कहीं कहीं से टूटी खिड़की से अंदर झाँकने लगी।माध्यम लाइट जल रही थी। जो अंदर चल रहा था, मैं दंग रह गया, मैं रोने को हो रही।
वो मुस्टंडा मेरी माँ के कपडे उतार रहा था। उनके बदन से खेल रहा था। मां भी उससे लिपट रही थी।अब जो होने वाला था मैं देख नहीं पाई और सिसकियाँ दबाये कमरे में लौट आई। रात भी रोती रही।सुबह आँख उठ आई।
कई दिन लगे मुझे इस सदमे से बहार निकलने के लिए। जैसे तैसे खुद को समझाया की माँ का प्रेमी होना गलत तो नहीं। जवानी बिना किसी साथी बिता देना आसान तो नहीं। शारीरिक जरुरत मजबूर कर देती है।
लेकिन एक रात फिर से दरवाजा खुला एक शख्स माँ के कमरे में दाखिल हुआ, मेरे मन मे भी कामुक क्रिया जागी और वही सब देखने का मन हुआ। इस बार कुर्सी साथ लेके गयी और इस बार जो देखा मैं सुन्न हो गयी। इस बार माँ से लिपटने वाला कोट पेंट पहने कोई लड़का था। मैं गुस्से से तमतमा उठी मन हुआ अभी चिल्ला दू, जो बुरे से बुरा कर सकती हूँ वही कर दूँ।
मैं कमरे में गयी और बड़ी बहन को उठाया छत पे ले गयी और रोते रोते सारी कहानी बयां की। दीदी कुछ देर चुप रही, मुझे गले से लगाया और उसके बाद जो जो बताया, हम दोनों रोने लगे। मेरे लिए माँ की इज्जत और बढ़ गयी
हम या समाज कभी इन्हे इस दलदल से बहार निकालने की कोशिश नहीं करता विपरीत मजबूर का फ़ायदा उठाया जाता है। दिन के उजाले में इनकी तरफ मुँह भी न करने वाले लोग, अँधेरी रात मे गली गली पता पूछते हैं।

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