खौलते तेल या पानी की एक छींट आपके हाथ पर पड़ जाये... तो उठने वाली तिलमिलाहट के साथ इस फोटो को देखिए... और सोचिए...
...कि किस कदर तड़पा होगा ये जीव उस कड़ाहे में... जिसके बाद इसे तश्तरी पर किसी के जीभ को जायका देने के लिए परोसा जा सका होगा 😢😢
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कुछ
लोग प्रश्न उठाते हैं कि जीवन तो पौधों में भी होता है... तो जो उन्हें
उबालते हैं, पकाते हैं, खाते हैं... क्या वो अपराध नहीं करते...??!
उनके
लिए बस ये कहना चाहूँगा कि... पहली बात तो ये कि जवाब उन्हें दिया जा सकता
है जो खुले मन से समझने को तैयार हो... उन्हें नहीं जो कुतर्क करना चाहते
हों। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं... ज्ञान, सुपात्र को ही देना चाहिए...
कुपात्र को नहीं... अन्यथा वो उस ज्ञान का मजाक उड़ाएगा जो अनभिज्ञता में
उसके लिए भी अनुचित हो जाएगा।
खैर मैं इस विषय पर अपना दृष्टिकोण रखता हूँ:
1) जीने के लिए भोजन आवश्यक है और भोजन दो ही प्रकार का हो सकता है: शाकाहार या मांसाहार।
2) कोई भी जीव मिट्टी, ईंट, पत्थर आदि खाकर जीवित नहीं रह सकता।
3) पशुओं में सोचने-समझने की क्षमता नहीं होती अतः वो जैसा उपलब्ध हो व उनके योग्य हो वैसा आहार करने को स्वतंत्र हैं।
4) मनुष्य सोच समझकर उचित भोजन का निर्णय ले सकता है।
5)
उचित भोजन वास्तव में वो है, जिसे खाने के बाद हमारे अन्दर सात्विक गुणों
में वृद्धि हो, हमारा मन शान्त रहे और हम स्वस्थ रहें... और ये शाकाहार से
ही सम्भव है।
6) एक
साधारण मनुष्य द्वारा किसी भी प्रकार का मांसाहार उसके अन्दर तामसिक गुणों
को बढ़ाता है... मन को अशान्त कर देता है... और ये सिर्फ अनुभव से समझा जा
सकता है... तर्कों या कुतर्कों से नहीं।
मैं
एक समय अण्डे खा लेता था... और मैंने स्वयं ये महसूस किया कि अण्डे के
सेवन के बाद मेरे मन की शान्ति भंग होती है... और मैंने अण्डे छोड़ दिये।
बाकी
इस बहस का कोई अंत नहीं है... जिसे जो उचित लगे वो वैसा करने को स्वतंत्र
है... हम सिर्फ अपना मत रख सकते हैं। कुछ लोगों को तामसिक जीवन ही पसन्द
होता है... उन्हें कौन रोक सकता है..?!?